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सर्व रामायण सार ~ रचना एवं स्वर लघु संत जिनवाणीपुत्र ध्यान सागरजी महाराज

सर्व रामायण सार ~ रचना एवं स्वर लघु संत ध्यान सागरजी महाराज
सर्व रामायण सार  

जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।  
धर्म-कर्म का मर्म बता कर, मन में धीरज लाय ॥  
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।  
राजा दशरथ अधिक हर्ष-वश, वर दे कर पछताय,  माँ कौसल्या दोषी पर भी, कभी न दोष लगाय ।  
माँ कैकेयी पुत्रमोह-वश, अपना नाम गँवाय  मात सुमित्रा पुत्र लखन को, सेवा-भाव सिखाय ॥१॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

विनय-दया-कर्त्तव्य परायण, शान्त-चित्त अभिराम, धीर-वीर-गम्भीर विवेकी, राम गुणों के धाम ।  
राम वन गये, राम बन गये, सब जग के आदर्श,  मर्यादा-पुरुषोत्तम उनसे, उन्नत भारतवर्ष ॥२॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

मन्त्र सुनाकर दयामूर्ति ने, किया गिद्ध-उद्धार,  फेरा हाथ गिलहरी पर भी, राम प्रेम अवतार ।  
शरणागत के शरण, मित्र के, मित्र परम निःस्वार्थ, जो रिपु को भी अवसर देते, सबको करे कृतार्थ ॥३॥

जिया में रामायण बस जाय .... 

धीर-वीर बजरंगबली कपि, सूझ-बूझ की खान,  करे असम्भव को भी संभव, रामदूत हनुमान ।  
रामनाम हनुमान लिखे तो, पत्थर डूब न पाय,  राम स्वयं पत्थर डाले तो, जल के भीतर जाय ॥४॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

लखन सजग प्रहरी रामानुज, भरत भक्ति-वैराग्य,  सीता सती अखण्ड समर्पण, पृथिवी का सौभाग्य ।  
नीति-निपुण गुणवन्त विभीषण, तजे पक्ष अन्याय,  कुम्भकर्ण ले पक्ष अनैतिक और पराभव पाय ॥५॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

दल-बल-मण्डित, बली दशानन, मानी राक्षसराज, त्रिखण्ड-विजयी हुआ पराजित, परनारी के काज ।
जब विनाश की बेला आए, सुमति कुमति बन जाय,  मन्दोदरी लाख समझाए, रावण को न सुहाय ॥६॥

जिया में रामायण बस जाय .... 

युद्ध-भूमि में मेघनाद को, भेद समझ में आय, दिव्य-शक्तियाँ भी अधर्म को, विजयी बना न पाय । अक्षौहिणी महासेनाएँ, रण में प्राण गँवाय, लेकिन अपने सर्वनाश को, रावण देख न पाय ॥७॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

मरते-मरते कहे दशानन, "सुनो लखन ! यह सार,  शुभ को शीघ्र नहीं करने से, खुले अशुभ के द्वार ।  नीति-वचन को ठुकराने से, होता बंटाढार,  क्रोधपूर्ण निर्णय लेने से, अरि का हो उपकार” ॥८॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

"सुनो राम ! क्यों मुझे लगी है, आज पराजय हाथ ?  मेरे साथ न खड़ा विभीषण, लखन तुम्हारे साथ । 
तीन काल में भी न कभी भी, हो सकते दो काम,  रावण की सीता बन जाए, शूर्पणखा के राम” ॥९॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

राम-लखन के संग सिया को, वन में जाती देख,  अवधपुरी की भरी भीड़ में, रोया था प्रत्येक ।  
राम-राज्य में उसी प्रजा ने, किया नहीं विश्वास,  लाँछित कर गर्भिणी सती को, दिलवाया वनवास ॥१०॥

जिया में रामायण बस जाय .... 

अपने युगल-पुत्र के सम्मुख, हुये निरुत्तर राम,  सतीपुत्र, संग्राम-विजेता, लव-कुश जिनके नाम ।  
जब तक पिता नहीं मिल पाए, माँ का था संयोग,पिता मिल गये तब लव-कुश को,माँ का हुआ वियोग ॥११॥ 

जिया में रामायण बस जाय .... 

खट्टे-मीठे दिन जीवन में, सबके सन्मुख आय,  अपने ही कर्मों के कारण, प्राणी सुख-दुख पाय । 
जैसी करनी वैसी भरनी, रामायण सिखलाय,  ममता को तज समता को भज, जीव परम पद पाय ॥१२॥

जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।  

धर्म-कर्म का मर्म बता कर, मन में धीरज लाय ॥  
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।


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*जैनं जयतु शासनम्*
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aagamdhara
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