सर्व रामायण सार
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।
धर्म-कर्म का मर्म बता कर, मन में धीरज लाय ॥
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।
राजा दशरथ अधिक हर्ष-वश, वर दे कर पछताय, माँ कौसल्या दोषी पर भी, कभी न दोष लगाय ।
माँ कैकेयी पुत्रमोह-वश, अपना नाम गँवाय मात सुमित्रा पुत्र लखन को, सेवा-भाव सिखाय ॥१॥
जिया में रामायण बस जाय ....
विनय-दया-कर्त्तव्य परायण, शान्त-चित्त अभिराम, धीर-वीर-गम्भीर विवेकी, राम गुणों के धाम ।
राम वन गये, राम बन गये, सब जग के आदर्श, मर्यादा-पुरुषोत्तम उनसे, उन्नत भारतवर्ष ॥२॥
जिया में रामायण बस जाय ....
मन्त्र सुनाकर दयामूर्ति ने, किया गिद्ध-उद्धार, फेरा हाथ गिलहरी पर भी, राम प्रेम अवतार ।
शरणागत के शरण, मित्र के, मित्र परम निःस्वार्थ, जो रिपु को भी अवसर देते, सबको करे कृतार्थ ॥३॥
जिया में रामायण बस जाय ....
धीर-वीर बजरंगबली कपि, सूझ-बूझ की खान, करे असम्भव को भी संभव, रामदूत हनुमान ।
रामनाम हनुमान लिखे तो, पत्थर डूब न पाय, राम स्वयं पत्थर डाले तो, जल के भीतर जाय ॥४॥
जिया में रामायण बस जाय ....
लखन सजग प्रहरी रामानुज, भरत भक्ति-वैराग्य, सीता सती अखण्ड समर्पण, पृथिवी का सौभाग्य ।
नीति-निपुण गुणवन्त विभीषण, तजे पक्ष अन्याय, कुम्भकर्ण ले पक्ष अनैतिक और पराभव पाय ॥५॥
जिया में रामायण बस जाय ....
दल-बल-मण्डित, बली दशानन, मानी राक्षसराज, त्रिखण्ड-विजयी हुआ पराजित, परनारी के काज ।
जब विनाश की बेला आए, सुमति कुमति बन जाय, मन्दोदरी लाख समझाए, रावण को न सुहाय ॥६॥
जिया में रामायण बस जाय ....
युद्ध-भूमि में मेघनाद को, भेद समझ में आय, दिव्य-शक्तियाँ भी अधर्म को, विजयी बना न पाय । अक्षौहिणी महासेनाएँ, रण में प्राण गँवाय, लेकिन अपने सर्वनाश को, रावण देख न पाय ॥७॥
जिया में रामायण बस जाय ....
मरते-मरते कहे दशानन, "सुनो लखन ! यह सार, शुभ को शीघ्र नहीं करने से, खुले अशुभ के द्वार । नीति-वचन को ठुकराने से, होता बंटाढार, क्रोधपूर्ण निर्णय लेने से, अरि का हो उपकार” ॥८॥
जिया में रामायण बस जाय ....
"सुनो राम ! क्यों मुझे लगी है, आज पराजय हाथ ? मेरे साथ न खड़ा विभीषण, लखन तुम्हारे साथ ।
तीन काल में भी न कभी भी, हो सकते दो काम, रावण की सीता बन जाए, शूर्पणखा के राम” ॥९॥
जिया में रामायण बस जाय ....
राम-लखन के संग सिया को, वन में जाती देख, अवधपुरी की भरी भीड़ में, रोया था प्रत्येक ।
राम-राज्य में उसी प्रजा ने, किया नहीं विश्वास, लाँछित कर गर्भिणी सती को, दिलवाया वनवास ॥१०॥
जिया में रामायण बस जाय ....
अपने युगल-पुत्र के सम्मुख, हुये निरुत्तर राम, सतीपुत्र, संग्राम-विजेता, लव-कुश जिनके नाम ।
जब तक पिता नहीं मिल पाए, माँ का था संयोग,पिता मिल गये तब लव-कुश को,माँ का हुआ वियोग ॥११॥
जिया में रामायण बस जाय ....
खट्टे-मीठे दिन जीवन में, सबके सन्मुख आय, अपने ही कर्मों के कारण, प्राणी सुख-दुख पाय ।
जैसी करनी वैसी भरनी, रामायण सिखलाय, ममता को तज समता को भज, जीव परम पद पाय ॥१२॥
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।
धर्म-कर्म का मर्म बता कर, मन में धीरज लाय ॥
जिया में रामायण बस जाय, जिया में रामायण बस जाय ।
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