* संत श्री ध्यानसागर जी के 20 अक्टूबर को जिनवाणी चैनल पर प्रसारित उपदेश से “वैराग्य पर कुछ अमृतबिन्दु “
- वैराग्य साधना की भूमिका है।
- जिसके अंदर वैराग्य उत्पन्न होता है वही साधना में तल्लीन हो सकता है।
- राग-द्वेष में अटका हुआ मन भटकता है , लेकिन विरक्त मन अनासक्त रहता है।
- किसी भी चीज़ की अनुपस्थिति हो पर वैरागी के मन में तटस्थता रहती है , वेदना उत्पन्न नहीं होती, तभी साधना में आनंद आता है।
- साधना का रस भौतिक सुखो के साथ संभव नहीं है।
- अनुभव की बात अनुभवी ही बतातें है, अनुभवी की बात तो कोई भी बता सकता है।
- जब कर्मो की मार पड़ती है तब अभिमान का नशा उतरता है और जब अभिमान का नशा उतरता है तब अपनी गलती समझ में आती है।
विभिन्न दर्शनो में जब अंतरंग शुद्धिकरण कि बात निकलती है, तो प्रायः आसक्ति से दूर हटनेकी बात सामने आती है l अर्थात वैराग्य को महत्व दिया जाता है l योग-वाशिष्ट महारामायणम् इस ग्रंथ में प्रथम प्रकरण का नाम है “वैराग्य” प्रकरण है l ऋषिकेश के ‘Devine Life Society’ से संबंध रखने वाले स्वामी सिवानंद्जी l कुंडलिनी योग नाम की एक बुक लिखी है English में l उसमें उन्होने Foundation वैराग्य ; वैराग्य को निव बताया है l अब सवाल ये है कि यदि सब लोग वैरागी हो गये, तो दुनिया कैसे चलेगी ? वास्तव में वैराग्य दुर्लभ है l यद्यपि जीवन में वैराग्य के बडे प्रसंग आते है l दो वैराग्य बडे प्रसिद्ध है l रागीयो के दुनिया में भी दो प्रकार के वैराग्य बडे प्रसिद्ध है l
एक है स्मशान वैराग्य,
तन पिंजरे से प्राण पखेरू जब बाहर उडजावे…..!
घर वाली द्वारे तक जावे बेटा आगन लगावे …….!
रोनेवाले रोते जावे….जाने वाला जावे……
सुंदर काया भी मरघट में, राख राख हो जावे…..ll२’
जब मरघट में चिता जलती है, तब इष्टजन रोते है, और जो परिचीत जन होतें है वो उस दृश्य को देखकर अंदर हि अंदर कुछ विरक्त होतें है l आपस में चर्चा करते है की एक दिन सबको यही आना है l इस मौत से कौन बचा है l ये मृत्यु किसीको नही छोडती, बच्चे को, बुढे को, निर्बल को, बलवान को, रोगी को, निरोगी को, रोगी को, निरोग को, धनी को , निर्धन को, मानव को और देवो को भी, पशु पक्षियो की तो क्या बात हैl
दुसरा प्रसंग जो आता है वैराग्य का वो है…….प्रसुती का l जब माँ संतान को जन्म देती है तब उसको दृष्टांत बना करके एक बडा सुंदर श्लोक विद्वानो ने बनाया है……l
विद्वानेव विजानाति विद्वज्जन परीश्रमो l
नहि वंध्याविजानाति पुत्र प्रसव वेदानाम् ll
विद्वान ही विद्वान के परिश्रम को जान सकता है l जो वंध्या स्त्री है अर्थात जिस नारी को संतान नही हुई है या नही हो सकती वह पुत्र को जन्म देनेकी वेदना कैसे जान सकती है ? जिस काल में ये सब स्थिती बनती है; जब संतान उत्पन्न होती है तब वो माता मन में विचार करती है बस एक येह संतान मेरे लिये पर्याप्त है ; अब तो मै संयम से रहुंगी l फिर संतान को जन्म बार बार क्या देना? इस तरह से उसके अंदर वेदना के कारण वैराग्य आता है l लेकीन जब समय व्यतीत हो जाता है तो फिर वापस राग में मन चला जाता है l राग की पराकाष्ठा में जाने के बाद भी मन थक जाता है l
और राग-द्वेष को छोडकर शांति पाने को उत्कंठीत हो जाता है l और इसी प्रकार जब संसार की असारता, भोगो कि निस्-सारता और शरीर कि नश्वरता का भान होता है l तब पता चलता है, कि ये सब धोका है l मै जिस दृष्टी से संसार में सार धुंड रहा हुँ, वो दृष्टी एक भ्रम है l जितने लोग यहा पर सुख की तलाश कर रहे है , वो सब जिस सुख की तलाश कर रहे है , वो सुख है ही नही l विवेक जागृत होने के बाद इस सत्य का भान हो सकता है l और जबतक जोश है, होश नहि है, तबतक वो स्थिती नही बन सकती l
जब रोग होतें है तब भोग अखरते है l जब वियोग होता है तब संयोग अखरता है l संसार कि स्थिती विचित्र है l लेकीन ये कुछ ऐसे कडवे सत्य है संसार के जिनको टाल पाना संभव नही है l
आज तक बोहोत बडे बडे सुरमा इस धरती पर हुये है लेकीन सब मिट्टी में समा गये l बडे बडे छेह खंडो के स्वामी और त्रिखंड के अधिपती भी अंत में मृत्यू के मुख में समा गये l और पल भर में अपने कर्मानुसार न जाने कहा चले गये l उनका नाम यहा कुछ दिन ८:१६ ते ८:३२ missing चलता रहा फिर आज ऐसे लोग है जिनका नाम हम लोग भी नहि जानते l श्री कृष्ण जैसे शुरवीर और त्रिखंड स्वामी जब अंत समय में कौशाम्भी के वन में प्यास लग कर आकुलीत हुए तब जरद कुमार के बाण से उनकी लीला भी अंत को प्राप्त हो गयी l वो भी चले गये l
तो जीवन के इस पक्ष को देखनेपर आसक्ति से बचा जा सकता है l वरना सामग्री से सुख पाने के लिये छटपटाते हुए, अपने इष्ट वस्तुओं कों जुटाते हुये और अनिष्ट वस्तुओ को हटाते हुए जीव कब चला जाता है पता भी नहि चलता l उम्र ढल जाती है ; और बाल पक जाते है, वृद्धावस्था आजाती है l बाल्यावस्था कहा चली गयी; जवानी कहा निकल गयी पताभी नहि चलता l और मृत्यु सामने खडी होती है l तब लगता है कि अरे ! मै तो कुछ कर ही नहि पाया l मै अगर कुछ कर लेता तो अच्छा रेहता l इन शास्त्रो की कुछ बाते आज मुझे सच लग रही है l गुरुजन जो कहा करते थे, लगता है सबकी बात तो नहि की जा सकती लेकीन उनमेसे कुछ ऐसे गुरु थे जो अनुभवी थे l
अनुभव कि बात अनुभवी ही बताते है l अनुभवी की बात तो कोई भी बता सकता है l यहा से सुनली और वहा बतादी l सरल है ! तो मुझे आज अपने अनुभव से प्रतीत होता है की वो गलत नही थे l मै गलत था l जब अभिमान का नशा उतरता है , तब अपनी गलती समझमें आती है l जब कार्मो कि मार पडती है, तब अभिमान का नशा उतरता है l
इस जगत में बडे उतार चढाव है l कोई निर्धन से धनवान बन जाता है ; कोई वैभव संपन्न हो करके भी निर्धनता को प्राप्त हो जाता है l इन दशाओं को देखकर जीवों कीं अलग-अलग अवस्थाओं को देखकर ऐसा मानना पडता है – एक युक्ती, एक तर्क, एक लॉजिक(logic) सामने आता है ; जो वैज्ञानीक सिद्धांत भी है और धर्म ग्रंथो का भी सिद्धांत है l
‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ l
और जो नास्तिक है उसको भी अगर पुलिस पकडने लग जाय तो वो भी यही पुछता है कि मैने क्या किया? इसका मतलब ये हुआ के कुछ करने सेही तो कुछ होता है l जिसने अपराध नहि किया उसको दंडित क्युँ किया जायेगा? और जिसने अपराध किया है वो दंड से कैसे बच सकता है? आज इस जीवन में बेईमानी करके तत्काल बच जाये सो बच जाय लेकीन कार्मो का जो हिसाब है वो बडा सुक्ष्म है l हमेशा के लिये यहा कोई नही बचता l जिसने जैसा किया है उसको वैसा भोगनाही पडता है l तो ये वैराग्य साधना कि भूमिका का है l
जिसके अंदर वैराग्य उत्पन्न होता है वही साधना में तल्लिन हो सकता है l क्योंकी जबतक ये मन राग और द्वेष में अटका हुआ है तबतक वहा से छुटकर जिस साधना में इसको जाना है उससे वंछित् रेहता है l
फिर कोईभी विचार आ जाय; किसीके भी बारेमे आ जाय वापस नमे किंचन……मेरा कुछ नहीं l धन का विचार आ जाय – मेरा कुछ नहीं है l तन का विचार आय – मेरा कुछ नहीं है l किसीकांभी विचार आ जाय – मेरा कुछ नहिं है l
अटका हुंआ मन भटकता है; लेकीन विरक्त मन अनासक्त रेहता है l ऐसी स्थिती वैरागी के अंतःकरण में नहि उत्पन्न होती कि कोई चीज न मिले तो बैचैन हो गये; मिल जाय तो प्रसन्न हो गए l एक तठस्तता रेहती है l तो इसके बाद फिर साधना करने में बडा आनंद आता है क्युंकी साधना का रस भौतिक सुखों के रस के साथ संभव नहि है l या तो उसका रस लो; छटपटाते रहो, परेशान होतें रहो या फिर उसको छोडकर इसका रस लों l
एक बीच कि स्थिती एसी बंती है, कि उसको कुछ कुछ छोड रहे है ; इसको कुछ कुछ पाने का प्रयत्न कर रहे है l अब वो स्थिती ऐसी है की उसमें……दोनों के बीचमें है l कर्तव्योंकों तो नहि छोड सकते; क्योकी जिम्मेदारी स्वयं अपने सिरपर उठाके रक्खी है ; तो उसको बीचमें कैसे छोड दोगें l और फिर उसके साथ-साथ कुछ अभ्यास भी चल रहा है l कुछ स्वाध्याय है; कुछ नियम है; कुछ त्याग है; कुछ ध्यान है; कुछ आवेगोंको शांत रखने का पुरुषार्थ भी है l बार-बार स्मरण किया जाता है की मेरा कार्य क्या है? और मै क्या कर रहा हुँ? तो वैराग्य के लिये प्राथमिक एक ऐसा अभ्यास संभव है – प्रातःकाल उठकर २४ सेकंद्स के लिये शांत बैठ जाय l कुछ नहीं करना है l केवल एक सुत्र “नमे किंचन” – मेरा कुछ नहीं है l
और रांतको सोनेसे पेहले “ किम् लभ्धम्, किम् नष्टम् ” बस इतना विचार कर लेना “ क्या पाया, क्या खोया ”l जो मेरा नहीं था उसके बारेमे मत सोचना l क्या पाया, क्या खोया l नहि तो दिन भरका हिसाब निकलने बैठ जाय के इतने पैसे आय और इतने मुझे देने पड़े l उसकी बात छोड दिजीये l यहा मैने अपने क्या पाया क्या खोया; मेरी साधना में क्या उन्नती हुई? क्या ऱ्हास हुंआ? मेरा क्रोध कितना बढा अथवा कितना घटा? मेरा अहंकार कितना बढा अथवा कितना घटा इन सब बातोंका विचार कर सकते हो अथवा विचार करते समय वही मुद्रा तर्जनी को और अंगुठे के साथ मिलाकर आप चाहे दोनो हाथोंसे कर सकते है; एक हाथ सेभी कर सकते है l और ज्ञानमुद्रा मै बैठोगे तो रील सिधी रखकर के पालथी लगाकर कलाईयों कों घुटनो पर रखकर हथेलीयों को धरती की और कर दिया और शांत बैठ गये l “नमे किंचन” – प्रातः , “ किम् लभ्धम्, किम् नष्टम् ” शयन के समय l इस अभ्यास के साथ में कूच और बातें भीं है l शयन करते समय एक श्लोक बतलाया था l पंडित हिरालाल पाण्डेजी ने –
ताक्षरशैने विद्या बलमायुष्यदक्षिणैः , पश्यमेतु महाचिंता हानीम् मृत्यु तथोत्तरे ll
इस श्लोक का अर्थ यह है कि पेहले ये सब गुरुकुल में पढाया जाता था, पुर्व दिशा में सिर रखकर सोनेसें विद्या प्राप्त होती है l दक्षिण दिशा में सिर रखकर सोने से बल और आयुष्य; पश्चिम में सिर रखकर सोने से बडी बडी चिंताए होती है l और उत्तर में सिर रखकर सोने से या तो हानी हो जाती है या मृत्यु l इसलिये मरण काल में केहते है कि यदि समझ में आ जाय कि इनकी मृत्यु आ ही गयी है तो उनके शरीर को थोडासा दिशांतरीत करते है और सिर उत्तर दिशा की और कर लेते है l तो फिर उनका मरण कुछ सुखद होता है l उतनी तकलीफ , उतनी छटपटाहट, वेदना नहि होती l अगर उत्तर दिशा में सिर करते है तो थोडा सुकुन रेहता है l और फिर जिसका जीवन साफ है उसकी मौत वैसे बिघडती नहीं l तो इसलिये ऐसे कुछ अभ्यास अपने जीवन में करने योग्य है l उपदेश तो बोहोत लोग देते है , पर उपाय बताना इस समय जादा जरुरी है l अगर उपाय करने लग जाएंगे, तो उपदेश काम आ जाएंगे l इसलिये ये सारे उपाय है l इसके अलावा कुछ श्वासोश्वास कीभी बाते है ज्यो ध्यान में रखनी होती है , के जबभी आप बैठ रहे हो २४ सेकंद के लिये बैठ रहे है ध्यान में , चिंतन मनन में तो उस समय आप अपनी सांस पुरी भरीये और पुरी छोडीए l शरीर में खिचाव न उत्पन्न करते हुए l रीड को सिधी रखकर, कंधौ को ढिला छोडकर और फिर कलाईयोकों पैरो के घुटनो पर रखकर ज्ञानमुद्रा में या चिन मुद्रा में हातेलिया उपरकी और होती है l जैसे भी बैठना हो बैठीए और उसके बाद श्वास पुर्ण अंदर ले और पुरी छोडीए गती को न बदलते हुए श्वाशोच्वास कीजो गती चल रही है वो चालने दिजीए l
जैनं जयतु शासनम्। जैनं जयतु शासनम्। जैनं जयतु शासनम्।