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भक्ति में लिन होने में ही जीवन का उद्धार छुपा हुआ हैं

भक्ति मैं लीं होने मैं ही जीवन का उद्धार छुपा हुआ हैं

पूर्व दिशा से इन्  भवनों का स्पर्श करके कक्षों में प्रवेश करते हुए और इधर जैन रुपी सूर्य पर विभिन्न प्रकार की धाराओं से जो भक्ति की धारा प्रवाहित हो रही थी बड़ा आनंद पुर्ण; बडाही मंगलमय दृश्य था। और यहापर जो चर्चा चल रही थी की भगवान की आराधना से अपने अटके हुए काम सुलझ जाते है ; अपने कई संकट कट जाते है । अपनी व्याधियाँ अपनी पीडाए; अपनी बाधाए दुर हो जाती है । तो इसपर बोहोत सारे लोगों का प्रश्न आता है की भाई जब जैन धर्म में कर्म सिद्धांत से सब कुछ हो रहा है तो फिर इन अनुष्ठानों से क्या हो जाएगा ?

इन् अनुष्ठानो से जो पुण्य का संचय होगा वह पुण्य तो एक स्थति बंध को लेकर के बंधेगा और जब तक उसका आबाधा काल पुर्ण नहीं हो जाता तब तक उदय में नहीं आ सकता । और कर्मों की जो जघन्य स्थिति बताई है वो तो क्षपक श्रेणी में दशम गुण स्थान में होती है ।  

तो यहापर तो सब क्षपक श्रेणी वाले है नहीं ; यहाँ तो सारे सारे भक्त लोग है । वे बड़े महायोगी ध्याता तो नही है । तो फिर ये कैसे हो सकता है ? के अभी हम पुण्य संचय करे और अभी हमारा संकट अभी उस पुण्य से नष्ट हो जाय ?

 तो सिद्धांत में विचार करने पर एक बड़ा समाधान प्राप्त होता है । गोम्मटसार में हमने आचार्य नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती एक रेहेस्य का उद्घाटन किया । वो सबको ध्यान से समझने योग्य विषय है ; वो ऐसा है की अभी के अभी अपन कुछ कर रहे है और फिर उसका फल कैसे मिल सकता है ? समाधान बड़ा सुंदर दिया आचार्य महाराज ने । वो समाधान ये है – 

बंधे संका मिज्जदि । 

गोमटसार कर्मकांड ग्रन्थ आचार्य नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती कहते है ,’’ संक्रमण का प्रकरण ; उसमे आचार्य कहते है ,” की हर जीव के अंदर पाप और पुण्य का पुंज प्रत्येक आत्मा के साथ लगा हुआ है । तो अब उसमेसे छाट करके पुण्य कैसे बाहर निकले ? तो उसका समाधान आचार्य महाराज दे रहे है 

गाथा ———

आप अपने परिणामोंको पुण्य बंध के योग्य बना लीजिए और उन परिणामोंको धवला की छट्टी पुस्तक में विशुद्धि परिणाम कहा ।

 

विशुद्ध परिणाम किसे कहते है ? 

जिन परिणामों से साता आदि प्रशस्त प्रक्रुतियों का संचय होता है । और एक और नियम है जैन कर्म सिद्धांत में । की जब विशुद्धि अनंत गुणित होती है तो पापों की निर्जरा असंख्यात गुणी होती है । अनंत गुणी विशुद्धि बढती है तो असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । 

तब उसमे जो बात लिखी है वो ये है ; के अगर अपने परिणाम ; देखो आप भक्ति कर रहे है लेकिन आप बार बार अपनी मुसिबत के बारेमेही सोचने लग जाओगे तो क्या होगा ? वो मुसीबत आपको भक्ति के काल में भी दुखी करेगी । इसलिए भक्ति के काल में मुसीबत का विचार मत करों ; वो उसीका तो इलाज है । उसीका तो उपचार है । आप भक्ति के काल में भक्ति में डूब जाओ । तो जो परिणाम होंगे वो विशुद्ध परिणाम होंगे । और विशुद्ध परिणामों से साता का आस्रव होता है । असाता की निर्जरा भी होती है ।

और आचार्य नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती कह रहे है –

बंधे संका मिज्जदि ।

जैसेही साता का बंध होने लगता है वैसेही जो पुरानी असाता है जिसके उदयसे आपको तकलीफ पहुच रही है ; वो जो असाता है वो संका मिज्जदि । वो साता बनकर के उदय में आने लग जाती है ।  

कितनी अद्भुत बात है ये !

आपको अभी जो साता का संचय हो रहा है उसकी आवश्यकता नहीं है । वो भविष्य के लिए है । लेकिन जो असाता उदय में आ रही है ; आप साता बांधेंगे तो वो साता बनकर उदय में आएगी । और साता बनकर के उदय में आएगी तो असाता जो उदय में आकर काम कर रही थी वो काम समाप्त हो जाएगा । और साता का जो काल आया है वो प्रारम्भ हो जाएगा । तो लगे हाथ तत्काल पुण्य लाभ होता है ।

इसीलिए यशसतिलकचंपु में अभी हम वो ही देख रहे थे ;

आचार्य सोमदेव सूरीजी ने लिखा है उपासक अध्ययन ग्रन्थ में तीन अध्याय आए है उसका नाम है उपासक अध्ययन; 

आचार्य लिखते है —

यही श्लोक समाधी भक्ति में भी आता है ; मुल तो इसी ग्रन्थ में है ।

आचार्य कह रहे है —

एकापि समर्थेयं जिन भक्तिर्दुर्गतिम निवारयितुम्

पुण्यानिचपुरयितुम् दातुम्मुक्तिश्श्रितुम् कृतिन: ।।

एकापि जिनभक्ति — आपके पास ध्यान नहीं ; ध्यान लगने की क्षमता नहीं ; ध्यान लगता ही नहीं । आपके पास वैराग्य नहीं ; आपके पास व्रत नहीं आपके पास ज्ञान भी नहीं स्वाध्याय भी जादा नहीं कर पाए । ऐसी स्थिति में आप जैन धर्म को अपनाकर क्या लाभ ले सकते हो?

ज्ञान वैराग्य ध्यान कुछ नहीं आपके पास तो फिर कैसे लाभ मिलेगा अपनेको धर्म का ? 

तो आचार्य महाराज कहेते है की चिंता मत करों ! 

जैन धर्म की शरण में आनेवाले छोटे छोटे तीर्यंच प्राणी भी कल्याण को प्राप्त हुए है । 

मुक्तागिरी में ४४ नंबर का एक मंदिर है । वहापर तीन भगवान ऐसे उद्भकायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े है । एक बन्दर आया काले मुह वाला बन्दर था । उसने बिच वाले भगवान के चरणों में अपना सिर रक्खा और बाकी दोनों भगवान् के चरणों में उसने अपने दोनों हाथ रख दिए । बाए हाथ से बाए वाले भगवान के पैर पकडे । और दाहिने हाथ से दाए वाले भगवान के पैर पकडे और वहापर सीर झुकाकर उसने अपनी आयु पुर्ण कर दी। कितनी अनोखी बात है ये । वह बन्दर मरण को प्राप्त हो गया । अभी इस मरण को आप क्या कहोगे ?

वो भलेही जानवर था ; लेकिन ये जो घटना है वो सूचित करती है की उसके अंदर भगवान के प्रति भक्ति थी । बिना भक्ति के ऐसी घटना हो ही कैसे सकती है । 

मरते समय क्या स्थिति बनती है जीव की ?

आकुलता होने लग जाती है । बहोत सारे जीव छटपटाते है ; बोहोत सारे जीव ये पानी के पास चले जाते है । की थोडासा पानी पी करके मर जाय । पर वो मंदिर आया । और उसकी ये घटना हुई । वैसे बोहोत बड़ा मंदिर नहीं है ; छोटा सा मंदिर है । लेकिन ये कार्य हुआ । 

आचार्य सोमदेव सूरीजी ने बड़ी सुंदर बात लिखी है की अकेली जिनेंद्र भगवान की भक्ति भी तीनों काम करती है । कौनसे तीन काम करती है ?

दुर्गतिम् निवारयतिम् समर्था:

दुर्गतियों का निवारण करनेमें वो समर्थ होती है । और क्या कर सकती है जिनेंद्र भगवान की भक्ति ?

याने कोई भी जीव जिनेंद्र भगवान की भक्ति करते हो और अपनी आयु का बंध करेगा तो उसकी दुर्गति का निवारण निश्चित है ; वो दुर्गति को प्राप्त नहीं हो सकता । 

और दूसरी बात क्या कह रहे है ?

पुण्यानिच पुरयितुम् ।

वो उस जीव को पुण्य से पूरित कर देगी । वो भक्ति उसको उसकी आत्मा में पुण्य को भर देगी । जो खाली पड़ी है ना आत्मा अभी गाडी रिज़र्व में चल रही है ।पता नहीं कब पुण्य का पेट्रोल ख़तम हो जाय । तो भगवान की भक्ति उसके अंदर पेट्रोल भर देगी । 

और तीसरी बात क्या कही ?

दातुम् मुक्तिश्च कृतिनः ।

यानि अगर वो कृति जीव है ; सम्यकदृष्टी जीव है तो फिर उसको भले समय लग जाय ;

तत्वार्थवार्तिक में आचार्य अकलंकभट्ट लिखते है —

की सम्यक्दृष्टि जीव यदि अपने सम्यकदर्शन को सुरक्षित रखले 

अप्रतिपतित  सम्यक्त्वा: सप्ताष्टभवै: सेत्स्यन्ति ।

जो सम्यक्दृष्टि जीव अपने सम्यकदर्शन की रक्षा कर लेते है ; उस से पतित नहीं होते ; उनके विषय में आचार्य कह रहे है की सात या आठ जन्मो में वो मोक्ष चले जाएंगे । उससे अधिक समय उनको नही लग सकता ।   

 तुम् मुक्तिश्रियाम् कृतिन: दातुम् समर्थम् । 

जिनेंद्र भगवान की भक्ति मोक्ष लक्ष्मी को भी प्रदान के लिए सक्षम होती है ।

तो फिर विचार करने की बात है आप ये मत सोचना की फिर हमें वैराग्य की क्या आवश्यकता है ? ध्यान की क्या आवश्यकता है ? ज्ञान की क्या आवश्यकता है ? 

नहीं । ये ज्ञान आपको मिल रहा है तभी तो आपको ये बात समझ में आ रही है ना ।

इसलिए ज्ञान का कभी निषेध नहीं करना । जिनवाणी माता जो भी देगी क्या पता कौनसे वाक्य से किस जीव का कल्याण हो जाए ?

किसीको पता है क्या?

मतलब हम कह सकते है की हमारा कल्याण इसी श्लोक से होगा ; कोई नहीं कह सकता । मरण काल में कौन से वचन कार्य कारी हो जाते है कोई कह नहीं सकता । किसी जीव को ॐ नमः सिद्धेभ्य: से सफलता प्राप्त हो जाती है सल्लेखना में । केवल ॐ नमः सिद्धेभ्य: छे अक्षर ॐ नमः सिद्धेभ्य: इससे उनका कल्याण हो जाता है ।

और किसी जीव को आठ अक्षरों से कल्याण हो जाता है । ॐ णमो अरहंताणं 

इसलिए ज्ञान से कभी कतराना नहीं । और ध्यान से भी नहीं कतराना । क्युंकी हो सकता है आप भगवान की भक्ति कर रहे है और पता नहीं भक्ति करते करते आप भगवान् के ध्यान में डूब गए । ऐसा नहीं होता क्या?

भक्ति करते करते अपन लीन हो जाते की नहीं होते ? हो जाते है । 

तो ध्यान भी बड़ी सुंदर बात है । और वैराग्य से क्यूँ पीछे हटे?

जब राग संसार में डुबाने वाला है तो फिर अपन जिन्होंने राग को छोड़ा है ; पेहेले उनके प्रति अनुराग को उत्पन्न कर ले । और उसके बाद अपनेको भी संसार शरीर भोगों के प्रति वैराग्य हो जाय और अपन भी उनके मार्ग पर उनके चरण चिन्ह पर आगे बढ़ते हुए तपस्या करने लग जाय और कर्मों की निर्जरा करके अल्प काल में अपना शुद्धिकरण कर लें ।

इसलिए ये चारों समान रूप से जीव के लिए हितकारी है । इतना जरूर है की भक्ति जो है वो अकेले भी बहुत कुछ कर डालती है । ध्यान अपना काम करता है ; ज्ञान अपना काम करता है ; वैराग्य अपना काम करता है । लेकिन भक्ति सबका काम करती है ।

इसलिए भक्ति के महत्व को ह्रदय में अंगीकार करके भक्ति में लीन होने मेही जीवन का उद्धार छिपा हुआ है । 

जैनं जयतु शासनम् ।।

भक्त-अपने-को-भगवान्-से-जितना-छोटा-मानेगा-उसकी-भक्ति-उतनी-बड़ी-होगी
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*जैनं जयतु शासनम्*
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aagamdhara
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