पुण्यतिथि पर पुण्यस्मरण – आचार्य शांतिसागर महाराज विशेष
प्रथमाचार्य शांतिसागरजी महाराज का जिनवाणीपुत्र ध्यानसागरजी महाराज के ह्रदय से जिसे सुनकर आपका ह्रदय भक्ति सम्मान और गर्व से भर जाएगा
णमो अरिहंताणं ।
णमो सिद्धाणं ।
णमो आइरियाणं ।
णमो उव्वज्झायाणं ।
णमो लोएसव्वसाहुणं ।।
त्रिलोक वर्ती त्रिकाल वर्ती अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्व साधु परमेष्ठी ओको नमोस्तु । द्वादशांग श्रुत देव स्वरूपा भगवती जिनवाणी सरस्वती माता को वंदन । परम श्रध्येय ह्रदय विराजमान आचार्य शान्तिसागर मुनिराज को श्रद्धा पुर्वक नमस्कार, नमोस्तु। दिक्षा शिक्षा गुरु आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी को नमोस्तु ।
चर्चा और चर्या ये दो शब्द अभी बोले गए । विद्वाद्जन साधु की तपस्या और चर्या से कम ; साधु से आगम चर्चा करके प्रभावित अधिक होते है । आचार्य शान्तिसागर महाराज जी अपने काल में जिस चर्या का पालन करते थे क्षुल्लक दिक्षा के चार दिन उपरांत उन्होंने निराहार आगम विधि से आहार न मिलने के कारण व्यतीत कर दिए थे । तो वहिसे उन्होंने एक क्रांतिकारी चरण स्थापित कर दिया था । वो चर्या की तो क्या प्रशंसा की जाय पर चर्या का एक काल होता है ; क्षेत्र होता है । जब आचार्य श्री वयोवृद्ध हो गए और कुछ लोगो ने उनके विषय में टिप्पणीयाँ की और उनके कानो तक ये बात पहुची की आचार्य श्री लोग आपकी कुछ आलोचना कर रहे है तो आचार्य श्री ने पेहेला प्रश्न पूछा – मुलगुणों की या उत्तर गुणों की ? अद्भुत प्रश्न था उनका ;और उस प्रश्न में ही सारे उत्तर थे । वो अपने मूलगुणों के प्रति पूर्ण सजग थे और वो जानते थे उत्तर गुणों का पालन क्षेत्र और काल सापेक्ष ही संभव हैं । मूलगुणों का पालन त्रैकालिक होता है। वो हुंडावसर्पिणी काल में भी वोही मुलगुण होते है और किसी भी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में वोही मूलगुण होते है। तो उनको आचार्यश्री ने बड़ी सावधानी से अंत तक पाला ।
अब एक चर्या और चर्चा की बात थी । विद्वान लोग सहेजतह प्रभावित नहीं होते थे उनसे । उनके ज्ञान की परीक्षा करते थे । ये कुछ जानते वानते है के नहीं ? सम्यक्दर्शन, द्रव्य गुण पर्याय आदि के बारे में ?निर्विकल्प समाधी ; शुद्धोपयोग, शुभोपयोग आदि के बारे में जानते है की नहीं ?कर्म सिद्धांत आदि को जानते है की नहीं ? मरण के सत्तर भेद आदि जानते है की नहीं ? ये सारे बोहोत सारे विषय थे उस समय और बड़े प्रखर विद्वत्ता को प्राप्त पंडित लोग भी थे उस समय । तो आज अपन सुनते है की इतने सारे विद्वान आदि आचार्य श्री से जुड़े थे तो वो अनायास नहीं जुड़े थे । जैसे पंडित देवकीनंदन शास्त्रीजी थे ; वर्णीजी उनको बाल्या अवस्था में ०४:२७ विद्यालय वाराणसी में पढ़ाने लेके गए थे । गाव वालों ने कहा की इस आफत की पुडिया को आप वहा ले जा रहे हो । ये न खुद पढ़ेगा और ना किसीको पढने देगा । लेकिन माता चिरोंजाबाई ने उस बालक के कुछ लक्षणों को देखकर के कहा की जिसको आप अभी शैतान समझ रहे हो वो आगामी काल में एक ऐसा विद्वान होगा जिसका आप लोग स्वयं आदर करेंगे । तो बड़े भरी विद्वान बन गए । पंडित देवकीनंदन शास्त्री । उन्होंने अनेको विद्वानों को पढ़ा पढ़ा कर तैयार कर दिया था । अब आचार्य शान्तिसागर महाराज और देवकीनन्द शास्त्रीजी का आमना सामना हुआ तो देवकीनंदन शास्त्री जिन्होंने पंचाध्यायि राजमल पांडेकी एक विद्वान जो ४०० वर्ष पुराने एक विद्वान हुए अख़बार बादशाह के काल के ; उनका पंचाध्यायी का उन्होंने अनुवाद किया । तो वो कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे । वो जैसेही आचार्यश्री के पास आये ऐसे ही चर्चा चर्चा में उन्होंने एक बात छेड़ दी ; के आचार्यश्री श्रावक धर्मं में तो आठ मूलगुण है ; पांच अणुव्रत भी है । तीन गुणव्रत है । चार शिक्षा व्रत है । तो श्रावक धर्मं में जो श्रावक के व्रत नियम है उनकी एक सिमित संख्या है । तो श्रावक लोग अपने व्रत सियाम को संभल ले ये बात तो गले उतरती है लेकिन आप तो साधू है ; आपके मूलगुण २८ है और आपके उत्तर गुण जघन्य प्रतिपत्ति से तो बारह तप और २२ परिषहजय होते है ३४ उत्तरगुण होते है ; लेकिन जो विस्तार प्रतिपत्ति है उस अपेक्षा से विस्तार से देखे तो आपके उत्तर गुण ८४ लाख है । आपके शील गुण १८००० है । आप कैसे सँभालते हो ? २८ के साथ साथ उनको कैसे संभालते हो ? आचार्य श्री भी कोई साधारण विद्वान नहीं थे । उनका ज्ञान भी मंझा हुआ ०७:०३ ज्ञान था और जब उन्होंने एक पंक्ति में पंडित जी का उत्तर दे दिया तो उनकी पाँव तले धरती खिसक गयी और उन्होंने हाथ जोड़े नहीं हाथ स्वतः जुड़ गए । और मस्तक गुरु के चरणों में टिक गया ।
उस पंक्ति को सुनने के लिए सब लालायित होंगे । वो पंक्ति थी,”हम एक को सँभालते है ; बाकि स्वयं सँभलते है। “ अब इसके अर्थ दो प्रकार से लगते है ; निश्चय नय से और व्यवहार नय से । अब अगर क्रियात्मक व्यवहार को देखते है तो हम एक अहिंसा को सँभालते है । बाकि सारे व्रत अहिंसा में सम जाते है । संभल जाते है । और निश्चय से देखते है तो ८४ लाख गुणों का विस्तार बड़ा लंबा चौड़ा है । उसमे क्या होता है हम एक अपनी आत्मा को सँभालते है तो बाकि सब कुछ अपने आप संभल जाता है । सम्यकदर्शन संभल जाता है ; सम्यक् ज्ञान संभल जाता है ; सम्यक्चारित्र संभल जाता है । सम्यक तप संभल जाता है । और बस इतनाही पर्याप्त है ऐसा – भक्त हो गए वो आचार्यश्री के ।
अब और भी विद्वानों की सूची है पंडित मक्खनलाल जी शास्त्री अलग प्रकार से प्रभावित हुए थे । वो भी बड़े गर्जना वाले विद्वान थे । पंडित जगंमोहंलाल जी शास्त्रीजी जिनको पंडित कैलाशचंद जी शास्त्री कहते थे की हिन्दुस्तान में इनके बराबर कोई वक्ता नहीं हो सकता । कही भी बैठाल दो और कोई भी विषय दे दो वो उसपर धुआदार व्याक्यान दे कर के आ जाते है । एक बार अजमेर की दर्गा पर उनको बैठाल दिया । और उन्होंने ऐसा व्याख्यान दिया की अगले दिन अखबारों में बस उन्ही के समाचार थे । सब आनादित हो गए । प्रसन्न हो गए । जब उनको समाचार मिले की आचार्य शान्तिसागर महाराज हमारे नगर में चातुर्मास करेंगे वो संकल्प कर चुके है । तब उनको लगा की कुछ पत्रिकाओ में मैंने पढ़ा है की आचार्य श्री दक्षिण भारत से विहार कर रहे है शिखरजी की वंदना करके यहाँ उत्तर भारत में मध्य प्रदेश की तरफ आ रहे है । और उनके साथ बड़ा भारी जुलुस चल रहा है । गाड़ी, घोडा, तंबू सब चल रहे है ; तो आलोचना का विषय ये था की दिगंबर साधू निष्परिग्रह होते है ;उनके साथ इतना ताम झाम कैसे?
तो पंडित जी को लगा की ये समाचार तो मुझे अच्छे नहीं लग रहे है । की ऐसे परिग्राही साधू हमारे नगरी में चातुर्मास के लिए पधार रहे है । तो वो बिना बताये चुपचाप आचार्यश्री के पास पहुच गए । और अनजान बनकर उन्होंने वहापर आज की भाषा में अगर कहे स्टिंग ऑपरेशन किए । याने एक तरह से जासूसी की । वो चौबीस घंटे देखते रहे की कब यहापर क्या क्या चलता है और कैसा क्या कारोबार है ; कैसा ये तामझाम है सब कैसा चल रहा है देखते है । तो पुरा देखते है वो । और आठ दिनोतक लगातार जब ये उन्होंने देखा और उधर कटनी समाज ने मीटिंग की बैठक की के आचार्यश्री ने संकल्प कर लिया लेकिन अपना भी कर्त्तव्य है की अपन यहाँ के जो पदाधिकारी है कार्यकर्ता है वो भी उनको विधिवत श्रीफल अर्पित करके अपना निवेदन उनके चरणों में रखे की आचार्यश्री हम आपका स्वागत करते है आप आइयेगा ; एक भय ये भी था के उस काल में एक महामारी प्लेग चलती थी । तो उस प्लेग के कारण भी कई लोग डरते थे । की अगर हम साधु का चौमासा कराएंगे और प्लेग पड़ी तो फिर प्लेग के समय क्या होता है की शेहेर छोड़ कर के खेतो में जा कर रेहना पड़ता है । तो हम आचार्य महाराज को कैसे सम्हाले ?इतने संघ के साथ । तो जो उस समय जो पूनमचंद घासीलाल जी यात्रा संघ पति थे उन्होंने कटनी वाले उस सज्जन से कहाँ जिन्होंने प्रथम श्रीफल अर्पित किया था इलाहबाद में श्रुत पंचमी के दिन उनसे उन्होंने कहा की तु घबराता क्यूँ है ? मैंने अब तक जितना साथ गुरु का प्राप्त किया है ; गुरु का सानिध्य जितना मैंने प्राप्त किया है मै अपने आज तक के अनुभव के आधार पर विशवास पुर्वक कहता हु की जिस दिन तुम्हारी कटनी में हमारे गुरु के चरण पड़ गए उस दिन के बाद प्लेग महामारी वहा पैर नहीं रखेगी ।और जिस दिन आचार्यश्री का कटनी में प्रवेश था अभी पंडितजी की घटना हम सुनाते है बिच में । बात निकल पड़ी है ।
प्रवेश था । उस दिन चन्दन की वृष्टि हुई थी । और वहापर जो विश्व में विख्यात हुए है ऐसे विद्वान प्रोफेसर लक्ष्मीचंद जैन उस समय छोटी वे में थे । सन १९२८ की घटना है । उन्होंने उस चन्दन की उन चंदन की बुन्दोमेसे एक बूंद को लेकर जीभ पर रक्खा था । हल्किसी कड़वाहट होती है और खुसबू होती है उस चन्दन की । वो मधुमक्खिओं की बुँदे गिरती है उससे बिलकुल अलग होती है वो । तो वो चन्दन की वृष्टि उन्होंने अपनी आंखोसे देखि है । और वहापर सन १९९४ में जब हमारा गमन हुआ था कटनी में हमारा प्रवास रहा तब वहा एक चन्द्रभान कवी भी रहते थे । उन्होंने भी आचार्य शांति सागर महाराज श्री का संस्मरण सुनाया । वो कवी थे । उन्होंने कहा की महाराज जी उस समय मैंने भी अपनी आंखोसे कुछ घटनाए देखि मै आपको सुनाना चाहता हु । बोले की आचार्य श्री के बोर्डिंग वहां जैन बोर्डिंग है कटनी में । बोर्डिंग में कुए के पाट पर बैठ गए । प्रवेश करके वो वह बैठ गए । और बैठ कर के वहा उन्होंने सबसे पहले जो उनका प्रतिक्रमण था या देवसिक प्रतिक्रमण था वो जो भी था उन्होंने वो प्रतिक्रमण किया; पाठ किया । और उसके बाद में वो कटनी में ठहर गए । न तो कटनी में उस समय से लेकर आजतक प्लेग दोबारा पड़ी नहीं । प्लेग दोबारा सूरत में पद चुकी । लेकिन कटनी में दोबारा प्लेग नहीं पड़ी । और उधर एक आम का वृक्ष हुआ करता था कुए के पाठ के बाजूमे ; जिस टहनी के नीचे आचार्यश्री ने बैठ कर के प्रथम प्रतिक्रमण किया था उस टेहेनि पर चौमाँसेमे आम के फल लग गए । बाकि पुरा पेड़ खली पड़ा है । सिर्फ उस टेहेनी पर आम के फल लगे थे ।ऐसी न जाने कितनी कितनी हमने प्रत्यक्ष दर्श्नियों के मुख से सुनी है ।
तो अभी ज्ञान की बातें चल रही थी । पंडित जगनमोहनलाल जी ने आठ दिन गुरु की परीक्षा ली और उसके बाद जब पुराणों में अपन पढ़ते है की जब देव लोग कीसि साधु की या किसी सम्यक्दृष्टि की परीक्षा करने के लिए यहाँ धरती पर आते है और जब वो परीक्षा में खरे उतरते है तो उन देवो को बड़ा खेद होता है । उनको बड़ा पश्चात्ताप होता है की हमने इनकी परीक्षा करके कितना पाप कमा लिया ।
जैसे उड्डायन रजा की परिक्षा एक देव ने की थी । और जैसे सनत्कुमार मुनिराज की परीक्षा दो देवों ने की थी । लेकिन अनत्तः वो नतमस्तक हो कर के चले गए थे । तो जब आठ दिन पूर्ण हुए और पंडित जी ने आठ दिनों तक नमोस्तु नहीं किया था । पंडित जी अष्टपाहुड आदि सारे ग्रंथों के भारी विद्वान थे और वो अच्छी तरह जानते थे की अष्टपाहुड में दर्शन पाहुड में २४ ,२५ no की गाथा क्या कहती है ?
आमराण वंदियाणं रुवं दट्ठुण सील सहियाणं ।
जे गारवं करंति य सम्मत्त विवज्जिया होंती । । २५। ।
सहजुप्पण्णं रुवं दट्ठं जो मण्णए ण मच्छरिओ ।
सो संजमपड़िवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो । । २४। ।
वो जानते थे इन गाथाओं को । इन गाथा ओंका अर्थ ऐसा है की जो देवताओ द्वारा वन्दनीय ; शील से सुशोभित दिगंबर मुनिराज की मुद्रा को देखकर नतमस्तक नहीं होते ; जिनका सिर नहीं झुकता वे सम्यक्त्व से विवर्जित होते है । कुंदकुंद आचार्य की वाणी है ये । और फिर कहते है की जो इर्ष्या के कारण जो साधू भी अन्य साधू की वंदना नहीं करते ; दिगंबर मुद्रा को प्रणाम नहीं करते वो संयम से सम्पन्न हो करके भी मिथ्यादृष्टि होते है । पंडितजी इस बात को जानते थे तो भी आठ दिन उन्होंने नमोस्तु नहीं किया । और आठ दिन जब उनकी परीक्षा पुर्ण हुई तब उन्होंने जो प्रथम नमोस्तु किया वो कैसा नमोस्तु होगा? उसका वर्णन शब्दोंसे संभव नहीं है । भव विभोर हो करके वो नतमस्तक हो गए । और संयोग ऐसा बना की उसी समय कटनी वाली जो समिति थी वो आई । और उन्होंने भी श्रीफल अर्पित किया और पंडितजी भी को भी नमस्कार करते हुए देख कर पूछा,” अरे पंडित जी ! आप यहाँ हो ? तो पंडित जी ने ऐसे मुस्कान दी और ऐसे सीर हिलाया । की हाँ यही हुए है । “
तो आचार्य महाराज ने सुना की पंडित जी तो आचार्यश्री चौक गए । बोले की ये तो बोहोत दिन से हमारे यहापर साथ साथ में चल रहा है । ये कौन है ? पंडित है ? तब फिर कटनी वालों ने परिचय दिया की “आचार्यश्री , आपने इनका नाम तो अवश्य सुना होगा की ये भारत के जाने माने विद्वान पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री जी कटनी वाले “ तो बोले,” पंडितजी आपने मुझे बताया नहीं ?”तो पंडितजी बोलते है “आचार्यश्री, अब कुछ केहने लायक नहीं है , मै स्वयं शर्मिंदा हु, लज्जित हु , मै आठ दिनों तक आपकी भक्तिसे नहीं आया था । मै आपकी परीक्षा के लिए आया था । “
अब जैसे ही उन्होंने परीक्षा शब्द बोला तो फिर कटनी समाज के लोग एकदम उनके चेहरे बिघड गए । लेकिन आचार्यश्री इतने इतनी समयसूचकता थी आचार्यश्री के अंदर की उन्होंने दोनोको संभाल लिया । उन्होंने एक वाक्य कहा , वो कम बोलते थे और ज्यादा बोलते थे , उन्होंने कहा की ”पंडित जी मै बहोत प्रसन्न हु की तुमने परीक्षा करके मुझे प्रणाम किया ,परीक्षा किए बिना प्रणाम करते तो छोड़ भी सकते थे ;अब तुमने परीक्षा करके प्रणाम किया है तो अब तुम्हे कोई भी विचलित नहीं कर सकता । मै बोहोत प्रसन्न हु । ” तो समाज वाले बोलते है की “ आचार्यश्री कोई गुरु परीक्षा कर सकता है ? गुरु को अधिकार है परीक्षा करने का ” नहीं बोले “ गुरु कीजिए जान के , पानी पीजिए छान “ ,“ बिना विचारे गुरु करें , परें चौरासी खान “ कबीरदास जी का दोहा था । की गुरु को जान पहेचान करके ही गुरु बनाना । बिना सोचे समझे गुरु बनाओगे तो चौरासी लाख योनिओं की खदान में गिरोंगे । तो ऐसी ऐसी अनेक घटनाएँ है जिससे ये सूचित होता है की आचार्य महाराज एक बड़े भारी विद्वान होते हुए भी ; देखिये एक बोहोत बड़ी बात बताना चाहते है हम । विद्वान बोहोत मिलेंगे और उनकी जटिल भाषा भी आपको खूब सुनने मिलेगी लेकिन जो अनुभवी विद्वान होते है उनके शब्द सरल होते हुए भी अत्यंत गहेन होते है । ये विद्वत्ता आचर्य शान्तिसागर महाराज जी के पास में थी। तो उनकी विद्वत्ता को; उनकी चर्चा;उनकी चर्या सबको प्रणाम करते हुए हम अपनी विनम्र श्रद्धांजलि उनके चरणों में अर्पित करते है ।
हम तो कॉलेज में पढ़ते थे ; हम कुछ जानते नहीं थे किसीको ; लेकिन हमें पता नहीं ; चारित्र्य चक्रवर्ती पुस्तक उस समय मिल गयी । तो उस पुस्तक को पढ़कर हम मालामाल हो गए थे । और तबसे लेकर आजतक आचार्य शान्तिसागर महाराजश्री के श्री चरणों के प्रति जो हमारी श्रद्धा है वो प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती जा रही है । उसमे कही कोई कमी आनेका तो प्रश्न ही नहीं वो बढती चली जा रही है ।
तो ऐसे आचार्य शान्तिसागर गुरुदेव को हम प्रणाम करते है । चार पंक्तिया उनके प्रति हम प्रस्तुत करना चाहते है ।
“ गुरु के भीतर भरी हुई थी आगम निष्ठां भारी;
भक्ति मार्ग में उनके मत में थे समान नर नारी ।
धवालाजीको ताम्र पत्र पर गुरुवर ने लिखवाया;
जिनवाणी की रक्षा का यह सुंदर कदम उठाया ।
बोलो शांति सागर नाम , बोलो शांति सागर नाम;
जय करुणा के धाम गुरु शांति सागर नाम ।
जैनं जयतु शासनम्, जैनं जयतु शासनम्, जैनं जयतु शासनम्, जैनं जयतु शासनम् ।।
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