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गोम्मटेश का सन्देश (Gomatesh Ka Sandesh)

गोम्मटेश का सन्देश (Gomatesh Ka Sandesh)

गोम्मटेश का सन्देश (Gomatesh Ka Sandesh)

गोम्मटेश स्थापना दिवस पर विशेष सन् ९८१ में प्रतिष्ठापित श्रवण बेलगोला के मनोहारी गोम्मटेश सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं ।

वीर मार्तण्ड राजाचामुण्डराय की माता काललदेवी को दक्षिणापथ के पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती द्वारा विराजमान की गयी अत्यन्तविशालकाय बाहुबली प्रतिमा के दर्शन की प्रबल भावना उत्पन्न हुयी जिससे वे विह्वल हो उठीं ।

जब गुरु का शुभाशिष प्राप्त करने माता और पुत्र आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के चरणमूल में पहुँचे तब गुरु ने कहाकि काल के प्रभाव से पोदनपुर के बाहुबली का दर्शन दुर्लभ है । इस समय वे ऐसे स्थान पर हैं, जहाँ जाने का पथ कुक्कुटसर्पों और घनघोर वनों के कारण दुर्गम है, अतः वृद्ध माँ को वहाँ ले जाना उचित नहीं ।

परन्तु प्रकारान्तर से बाहुबली का दर्शन प्राप्त हो सकता है । शुभ तिथियों के स्वप्न पर ध्यान देना । संयोगवश किसी रातगुरु, राजा और राज माता तीनों ने एक ही स्वप्न देखा ।

तदनुसार राजा चामुण्डराय अपरनाम गोम्मट ने चन्द्रगिरि के स्वप्नसूचित स्थान पर जा कर गुरु साक्षी में अपनी पीठ की ओर एक बाण चलाया । बाण सनसनाता हुआ विन्ध्यगिरि के अखण्ड पाषाण शिखर से टकराया । बाणाघात के स्थान को नाभि मान कर मूर्तिनिर्माण का कार्य कुशल मूर्तिकार अरिष्टनेमि अपरनाम नेमण्णा और उसकी कारीगर मण्डली को सौंपा गया ।

बारह वर्ष मेंएक अलौकिक मूर्ति निर्मित हुयी । राजा प्रतिमा की सुन्दरता पर मन्त्रमुग्ध हो गया । उत्तरमुखी होने से प्रतिमा की दृष्टि जनपद की ओर जाती थी जो शिल्प विद्या की दृष्टि से एक शुभ सूचक चिह्न था ।

प्रसन्नहोकर राजा ने घोषणा कर दी कि यदि शिल्पकार प्रतिमा के सौन्दर्य में और अधिक निखार लाता है तो मैं इस भव्य आकृतिसे अब जितना पाषाण भाग पृथक् होगा, ठीक उतना ही स्वर्ण उसको भेंट करूँगा ।

अब नेमण्णा ने स्वर्ण के प्रलोभन में कार्य करना प्रारम्भ किया परन्तु जब उसने राजा द्वारा प्रदत्त स्वर्ण को मुट्ठी में पकड़ने की चेष्टा की उसकी मुट्ठी कीलित हो गयी ।

समाचार मिलते ही उसकी माँ घटना स्थल पर आयी और सारी स्थिति समझ कर उस पर कुपित होकर बोल पड़ी, “अभागे नेमण्णा ! तूने यह क्या कर डाला ?” भयभीत नेमण्णा माँ की आँखों से आँखें नहीं मिला सका । माँ बोली, “एक पुत्र है जो माँ पर स्वर्ण लुटा रहा है और एक हैजो स्वर्ण के लोभ-वश, प्रभु के अंग घटा रहा है । अरे निर्लज्ज ! तुझे धिक्कार है । तूने प्रतिमा के बाँये हाथ की तर्जनी कोछोटा कर दिया । प्रायश्चित्त बिना तेरी मुट्ठी नहीं खुलेगी । तू इसी दण्ड के योग्य है ।”

मूर्तिकार की आँखें खुल गयीं और हृदय पश्चात्ताप से भर गया । उसने उपहार न स्वीकार करने का संकल्प किया और प्रायश्चित्त में सम्पूर्ण पर्वत पर अपना नामांकन कहीं भी नहीं होने दिया ।

मुट्ठी खुल गयी और वह माँ के साथ घर पर लौटआया । माँ ने उसे भोजन परोसा । वह बोला, “क्यों माँ ! आज भोजन में लवण नहीं है ?” माँ ने कहा, “पुत्र ! लवण तो बारह वर्षों से तूने छोड़ रखा है । इतने समय से तेरा ध्यान बाहुबली भगवान् पर था इसलियेतुझे स्वाद का भान नहीं था । आज कार्य सम्पन्न होने पर तेरा ध्यान लवण की ओर गया है ।”

राजा चामुण्डराय के आग्रहपर भी शिल्पकार अरिष्टनेमि ने कोई उपहार अपने लिये स्वीकार नहीं किया । प्रतिष्ठा मुहूर्त्त चैत्र शक्ला पंचमी का निकला । महामहोत्सव में गुरुजन, प्रतिष्ठित व्यक्तित्व एवं प्रबुद्ध वर्ग के साथ अपारजनसमूह उपस्थित हुआ और सारी विधियाँ शास्त्रानुसार समय पर सम्पन्न की गयीं ।जब महाभिषेक होने लगा तब एक विकट समस्या खड़ी हो गयी । सहस्र घंटों की धाराएँ भी प्रतिमा से नीचे न आ पायीं !

विवेकसे विचार करने पर यह तथ्य सम्मुख आया कि किसी भक्त की भक्ति वंचित हुयी है, तभी पूर्णाभिषेक रुका हुआ है ।

घोषणा हुयी कि जो कोई भी प्रभु का न्हवन करने को इच्छुक हो, वह सहर्ष करें । इतने पर भी जब कार्य सिद्ध नहीं हुआ तब सेनापति ने जन-समूह पर दृष्टिपात किया और देखा कि भाव-विभोर गुल्लिकायज्जी, पीछे दूर खड़ी थी, अश्रु आँख में और कलश हाथ में पकड़ी थी ।

जैसे बाहुबली ने भरतराज का मान भंग किया था वैसे ही इस घटना ने श्रीमन्तों एवं धीमन्तों का मान भंग कर दिया ।

कर्णाट प्रान्त में गुल्लिकायी एक श्वेतफल होता है जिसकी आकृति का दुग्ध कलश अज्जी अपने साथ लेकर वहाँ आयी थी । उसे सविनय ऊपर आमन्त्रित किया गया । जब गुल्लिकायज्जी ने धारा की तब प्रभु एवं पर्वत आप्लावित हो गये ।

नीचेकल्याणी सरोवर बन गया । एक नारी ने भक्ति की शक्ति से सबको अचम्भित कर दिया ।

आज भी गोम्मट राजा के ईश—गोम्मटेश के द्वार पर अज्जी की मूर्ति अभिषेक मुद्रा में कलश पकड़े खड़ी है ।

आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटेश स्तुति के पाँचवें काव्य में भव्वावलीलद्धसुकप्परुक्खं पद द्वारा संकेत कियाहै कि गोम्मटेश भव्य जीवों की पंक्ति को प्राप्त उत्तम कल्पवृक्ष हैं और देविंदविंदच्चियपायपोम्मं पद से यह सूचित किया है कि गोम्मटेश के चरण कमल इस काल में भी देवेन्द्रों के द्वारा अर्चित हैं ।

गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं कि राजा गोम्मट विजयी हो जिसके द्वारा बनवायी गयी प्रतिमा का मुखड़ा सर्वार्थसिद्धि के देवों ने तथा विदेह क्षेत्र के परमावधि एवं सर्वावधि ज्ञानीयोगियों ने भी देखा है अर्थात् इस प्रतिमा का यश भरतक्षेत्र तक सीमित नहीं है ।

*जैनं जयतु शासनम्*
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aagamdhara
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