अनुभवी का रहस्य
“जो दिख रहा है वह अधूरा सच है — एक ही दृश्य भय में अलग दिखता है,
विश्वास में अलग दिखता है,
स्वस्थ आँखों से अलग दिखता है,
चश्मा लगा कर अलग दिखता है,
चश्मा उतार कर देखने पर
अलग दिखता है,
दृष्टि-दोषवाले को अलग दिखता है,
दोष-दृष्टिवाले को अलग दिखता है, वैज्ञानिकों को अलग दिखता है,
आधुनिक यन्त्रों से अलग दिखता है,
तत्त्व-दृष्टि से अलग दिखता है,
दिव्यज्ञानी को अलग दिखता है
और सर्वज्ञ केवली को
अलग दिखता है ।
दूर से सुन्दर दिखने वाली वस्तु पास से देखने पर कुरूप निकलती है !
सारे दृश्य मायाजाल के समान हैं ।
मन उनमें चित्र-विचित्र कल्पनाओं के रंग भरता रहता है ।
प्रत्येक घटना में हम स्वयं अपने ही मन से सही या ग़लत रंग भर कर प्रसन्न अथवा खेद-खिन्न
होते रहते हैं ।
जब मृत्यु सामने खड़ी होती है और चेतना आती है तब पता चलता है कि सारा नाटक
अपने ही अंदर चल रहा था ।
अपने को नाटक का अंश माननेवाले और बनानेवाले जगत् के प्रत्येक कोने में मिल जाते हैं ।
ज्ञानी ही नाटक को नाटक जान पाते हैं । यही कारण है कि अनुभवी सुख-दुःख में सदा मुस्काते हैं ।”
जिनवाणीपुत्र श्री ध्यानसागरजी महाराज