आगमधारा
“आगमधारा का उद्देश्य प्रशंसा पाना नहीं हैं बल्कि जिनशासन का प्रकाश फैला कर भटके हुए जीवों के अंदर का अन्धकार हटाना और अपने हृदय मे केवलज्ञान का प्रकाश जगाना है।”
जिनवाणीपुत्र क्षुल्लक श्री ध्यान सागरजी महाराज ने अनेक गत अनेक वर्षों से जिनवाणी का गहन अध्ययन किया है, महाराजजी की स्वाध्याय और उपदेश की सरल शैली के कारण जटिल विषयों को सरलता से स्वाध्यायी जन ग्रहण कर सकते है।
णमोकार महामंत्र स्वाध्याय श्रृंखला
आराधनासार
आत्मानुशासन
द्रव्यसंग्रह
छहढाला
मृत्युमहोत्सव
स्वाध्याय-मङ्गलाचरणम्
अर्हन्तः श्रुतधारका गणधरा आचार्यवर्यास्तथा, वक्तारो जिनशासने त्रय इमे शास्त्रं तदीयं वचः।
अध्यात्मागमगूढतत्त्वविषयं स्याद्वादविद्यास्थितं, ह्यस्माभिः क्रियते तदीयविषया भक्त्या श्रुताराधना॥
भावार्थ: जिनशासन में आगम-सिद्धान्त के अधिकृत वक्ता तीन हैं। प्रथम-वक्ता अर्हन्तदेव अर्थात् सर्वज्ञ-तीर्थङ्करादि हैं, द्वितीय-वक्ता सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग-श्रुत के धारक श्रुतकेवली गणधरादि हैं एवं तृतीय-वक्ता उसी आगम-धारा के प्रवर्तक आगमचक्षु निर्ग्रन्थाचार्य हैं। सारांश यह है कि जिनशासन में परमेष्ठियों के पद पर विराजित केवली, श्रुतकेवली एवं परम्पराचार्य; इनकी श्रुत-परम्परागत वाणी ही शास्त्ररूप में स्वीकृत की जाती है। स्याद्वाद-विद्या अर्थात् सापेक्षवादी-शैली से यह जिन-शास्त्र अध्यात्म एवं आगम; इन दोनों द्वारा वस्तु के रहस्यमयी स्वरूप का निर्दोष अर्थात् पूर्वापर आदि दोषों से रहित प्रतिपादन करता है। हम लोग श्रुत-भक्ति एवं आचार्य-भक्तिपूर्वक उसी शास्त्र-वाणी की आराधना अर्थात् स्वाध्याय करते हैं।
० आदि-मङ्गलाचरण: (अल्पकाल में शिष्यों को शास्त्र-पारगामी बनाता है)
श्रुत-भक्ति एवं आचार्य-भक्ति करने के उपरान्त ग्रन्थकारकृत मङ्गलाचरण पढ़ते हैं।
० मध्य-मङ्गलाचरण: (स्वाध्याय के क्रम को अखण्ड रखता है)
श्रीजिनेन्द्रदेवाय नमः॥ जय बोलो जिनवर-वाणी की!॥ श्रीग्रन्थकर्त्राचार्येभ्यो नमः॥
० अन्त्य-मङ्गलाचरण: (विद्या का आनुषङ्गिक फल सातिशय पुण्य एवं मुख्य फल संवर-निर्जरा-मोक्ष देता है)
यस्मान्निजहितैषिभ्यो, धन्यवादः प्रदीयते। स्वाध्यायानन्तरं तस्माच्छास्त्र-भक्तिर्विधीयते॥
अर्थ: चूँकि अपना उपकार करनेवालों को धन्यवाद दिया जाता है, अतः स्वाध्याय के पश्चात् शास्त्र की वन्दना की जाती है अर्थात् श्रुत-भक्ति किंवा जिनवाणी की स्तुति की जाती है।
शास्त्र-पठन में मेरे द्वारा, यदि जो कहीं-कहीं, प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छूट गयी।
सरस्वती मेरी उस त्रुटि को, कृपया क्षमा करें और मुझे कैवल्यधाम में, माँ अविलम्ब धरें॥
वाँछित फलदात्री चिन्तामणि-सदृश मात! तेरा, वन्दन करनेवाले मुझको, मिले पता मेरा।
बोधि समाधि विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको, मिले और मैं पा जाऊँ माँ! मोक्ष-महासुख को॥
सुविचार खण्ड
हर समस्या में एक पुरस्कार छुपा है l
परिचित से अपरिचित होकर , अपरिचित से परिचित होने की कला का नाम अध्यात्म है l
शब्दग्रही जीव आग्रही बन जाते है l अभिप्राय ग्राही जीव विनयी बन जाते है
जैन धर्म
जिन-शासन क्या है?
समणसुत्तं की गाथा क्रमांक २४ में लिखा है~
जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि य एत्तियगं जिणसासणं॥
तीर्थंकर परमात्मा के धर्म-शासन को जिन-शासन कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं कि हे जीव! जो तू अपने लिये अच्छा अथवा बुरा समझता है, वही अन्य जीवों के विषय में भी समझ ले; बस इतना ही जिन शासन है। सभी को अपना जीवन और सुख प्रिय होता है तथा, कोई भी प्राणी मरना अथवा दुःखी होना नहीं चाहता। बस इसी भावना को सबके प्रति आचरण में लाने का नाम जिन शासन है।
जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिणसासणं सुइरं॥११५॥
जिसका आश्रय लेनेवाले जीव अनन्त संसार को पार कर लेते हैं, सर्व जीवों के लिये शरणभूत वह जिन-शासन चिरकाल तक जयवन्त रहे॥